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मनिहारी गंगा

श्री संतमत सत्संग मंदिर

ठाकुरबाड़ी नवाबगंज

गोगाबील झील - पक्षी विहार

अम्बेडकर चौक मनिहारी

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शुक्रवार, 29 अगस्त 2025

मैं मनिहारी हूँ - उपेक्षा का शिकार धरोहर की कहानी

Manihari
मैं मनिहारी हूँ... 


गंगा और कोसी के संगम पर बसा इतिहास, संस्कृति और प्रकृति का अद्भुत संगम है। मेरा नाम भले छोटा हो, लेकिन मेरी पहचान, मेरी धरोहर और मेरा इतिहास किसी बड़े शहरों से कम नहीं। सदियों से मैं व्यापार, संस्कृति, प्रकृति का मिलन स्थल रहा हूँ। किंतु विडंबना यह है कि समृद्ध संभावनाओं के बावजूद मैं आज भी प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही का शिकार हूँ। आज मैं आपको अपने मन की वे बातें बताना चाहता हूँ, जिन्हें सुनने वाला शायद कोई नहीं।  
मेरा नामकरण  
मान्यताओं के अनुसार महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण यहां अपने खोया हुआ रत्न (मणि) को ढूंढते हुए आए थे, जिसके कारण मनिहारा नाम पड़ा, जो समय के साथ मनिहारी के नाम से प्रसिद्ध हो गया। 
मेरा गंगा घाट - आस्था और अव्यवस्था 
मेरे सीने से बहती गंगा, मेरी आत्मा की पहचान है। गंगा किनारे मेरा घाट न सिर्फ धार्मिक आस्था का प्रतीक है बल्कि जीवन और जीविका का सहारा भी है। लोग यहाँ दूर-दूर से जैसे नेपाल, म्यांमार, असम, बंगाल गंगा स्नान करने आते हैं, नाव-जहाज से सफर करने आते है और साहेबगंज(झारखण्ड), सकरीगली, महाराजपुर, पीरपैंती, भागलपुर इत्यादि को जाते हैं। कभी यहाँ रेलवे के द्वारा सकरीगली के लिए स्टीमर चलाया जाता था। प्रशासनिक उदासीनता का आलम यह है की अभी भी यहाँ व्यवस्थाओं कि कमी है जैसे सीढ़ीनुमा घाट, यात्रियों को बैठने के लिए उचित व्यवस्था, पीने के लिए साफ़ पानी, नाव या जहाज चलने का समय सारणी इत्यादि। यहां प्रतिदिन दर्जनों अंतिम संस्कार होते हैं। परंपरागत रूप से लकड़ी से चिता जलाकर दाह संस्कार किया जाता है, जिससे न केवल अत्यधिक लकड़ी की खपत होती है, बल्कि गंगा नदी भी प्रदूषित होती है। अधजली लकड़ियाँ और राख सीधे गंगा में प्रवाहित कर दी जाती हैं, जिससे जल की शुद्धता प्रभावित होती है और नदी तट पर आने वाले लोगों को असुविधा का सामना करना पड़ता है।
आज आवश्यकता है कि मनिहारी गंगा घाट पर विद्युत शवदाह गृह का निर्माण किया जाए। इससे अंतिम संस्कार की प्रक्रिया स्वच्छ और तेज़ होगी, गंगा नदी प्रदूषण से बचेगी, और लोगों को आधुनिक सुविधा उपलब्ध होगी।
वैसे पिछले कुछ सालों में मनिहारी गंगा घाट की तस्वीर बदली है। यहाँ शौचालय बनाये गए हैं, CCTV कैमरा लगाए गए हैं, यात्रियों को बैठने के लिए शेड लगाए गए हैं, घाट पर बैरिकेटिंग तथा महिलाओं को वस्र बदलने के लिए घेरा भी लगाया गया है। थोड़ी और देखभाल मिले तो यह घाट एक बड़ा पर्यटन स्थल बन सकता है। 
मनिहारी रेलवे स्टेशन  - उपेक्षित जीवनरेखा
मनिहारी रेलवे स्टेशन कभी व्यापार और यात्रियों की सुविधाओं का प्रमुख केंद्र था। परंतु आज यह स्टेशन की हालत बदहाल है। यात्री सुविधाओं की कमी, प्लेटफॉर्म पर अव्यवस्था, यात्रियों के लिए स्वच्छ पेय जल की कमी, शौचालय की कमी, प्रतीक्षालय, गाड़ियों की कमी और आधुनिकीकरण की धीमी रफ्तार आदि है। मनिहारी स्टेशन पर लाखों कि संख्या में यात्री छठ पूजा, कार्तिक पूर्णिमा, माघी पूर्णिमा, सावन माह का पूरा महीना तथा हर महीने के पूर्णिमा तथा अमावस्या के दिन आते हैं। जोगबनी, नेपाल, बंगाल, सहरसा, मधेपुरा, बनमनखी इत्यादि स्थानों से गाड़ी में यात्री आते हैं और मनिहारी घाट पर गंगा स्नान करके पुनः अपने गंतव्य स्थान तक चले जाते हैं। अगर सरकार थोड़ी संवेदनशीलता दिखाए तो यह स्टेशन पूरे इलाके की तस्वीर बदल सकती है। मनिहारी में केवल दो लाइन है जिसे बढ़ाकर तीन लाइन कर देना चाहिए जिससे मनिहारी से नई गाड़ी चलने की संभावना बन सके। दोपहर 02:00 बजे के बाद कटिहार से तेजनारायणपुर के लिए कोई सवारी गाड़ी नहीं है। शाम में कटिहार से तेजनारायणपुर के लिए भी पूर्व की भांति सवारी गाड़ी देना चाहिए जिससे बघार, कांटाकोश, तेजनारायणपुर, अमदाबाद के यात्री को सुविधा मिले। स्टेशन परिसर एवं प्लेटफार्म में CCTV कैमरा लगाना चाहिए, यात्रियों को बैठने की व्यवस्था होनी चाहिए, कटिहार-सिलीगुड़ी इंटरसिटी एक्सप्रेस को मनिहारी से सुबह 05:00 बजे चलाया जाना चाहिए, यात्रियों को भी चाहिए कि बिना टिकट यात्रा न करें, जिससे रेलवे के राजस्व में वृद्धि हो।
गोगाबिल झीलपक्षी विहार 
प्राकृतिक सौंदर्य और जैव विविधताओं का प्रतीक गोगाबिल झील प्रवासी पक्षियों का प्रमुख केंद्र है। यहां नवम्बर से फरवरी तक हजारों की संख्या में प्रवासी पक्षी आते हैं और यहां के वातावरण में निवास करते हैं। 1990 में यहाँ आनेवाली पक्षियों की बड़ी संख्या को देखकर इसे पक्षी विहार घोषित किया गया। यहाँ रूस तथा अन्य देशों के लगभग 300 से भी अधिक प्रकार के पक्षी यहाँ प्रवास के लिए  आते हैं, जिसमें से लालसर, राजहंस, डोकहर, पचार, बटहर, बड़ा सिलिक, छोटा सिलिक, टिटही, पंतवा, बगुला, मंचरंगा, सीरियल चाह, लाल रिवाले ग्रीव, पोटचार्ड, स्पॉटवील, टील, कुट और ब्रहुमानी हंस प्रमुख है। प्रशासनिक उदासीनता का आलम यह है कि अभी भी कम्युनिटी रिजर्व घोषित होने के बावजूद इसकी विकास के लिए धरातल पर कोई काम नहीं दिख रहा है। बिहार सरकार को इसपर ध्यान देना चाहिए जिससे पर्यटन को बढ़ावा मिल सके।
पीर पहाड़ - "बाबा हजरत जीतनशाह रहमतुल्लाअलेह"
प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण, उत्तरी बिहार का सबसे ऊँचा स्थान पर "बाबा हजरत  जीतनशाह रहमतुल्लाहअलेह" का मजार स्थित है। गंगा किनारे स्थित इस पहाड़ की ऊँचाई लगभग 60 फीट है। ऐसा माना जाता है कि 1338 ई० में स्व० अतुल मुखर्जी ने मन्नत पूरी होने के पश्चात इस पहाड़ पर भवन का निर्माण करवाया था, तब से पीर पहाड़ लोगों की आस्था और भक्ति का केंद्र रहा है। दूर-दूर तक पीर बाबा की महिमा ऐसी फैली हुयी है कि सभी समुदाय के लोग प्रत्येक दिन यहाँ हजारो की संख्या मन्नते मांगने और दुआ करने आते हैं। प्रशासन को यहाँ साफ़-सफाई का विशेष ध्यान देना चाहिए जिससे यहाँ की सुंदरता बनी रहे। मजार की मरम्मत और सौन्दर्यकरण, बैठने की उचित व्यवस्था, सीढ़ियों तथा चढ़ाई वाले रास्तों को मजबूत बनाना, बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं जिसके लिए पुलिस कर्मी की तैनाती CCTV कैमरा लगाना इत्यादि पर प्रशासन को विशेष ध्यान देना चाहिए। 
महर्षि मेंही दास कुटी- आध्यात्मिक धरोहर
मनिहारी की पहचान का एक और महत्वपूर्ण केंद्र है महर्षि मेंही दास कुटी। यह कुटी (आश्रम) महर्षि मेंही जी की स्मृति में बनाई गई है। संत साहित्य और साधना का यह स्थल आध्यात्मिक चेतना का अनमोल खजाना है। महर्षि मेंही दास का मनिहारी से संबंध आध्यात्मिक, स्मृति और प्रचार से जुड़ा हुआ है। मनिहारी स्थित महर्षि मेंही दास कुटी एक पवित्र स्थान है, जहाँ पर उनकी शिक्षाओं का अनुसरण और प्रचार किया जाता है। यह जगह उनके नाम पर बनी हुई है और आज भी उनके विचारों को जीवित रखे हुए है।
नवाबगंज ठाकुरबाड़ी - भक्ति और परंपरा का संगम 
नवाबगंज में स्थित ठाकुरबाड़ी मेरी सांस्कृतिक धरोहर है। यह स्थान भक्ति और आस्था का संगम है, जहाँ धार्मिक अनुष्ठान और लोक परंपराएँ आज भी जीवंत हैं। लेकिन उचित संरक्षण न मिलने के कारण यह मंदिर अपनी पूरी चमक बिखेर नहीं पा रहा है। पर्यटन मानचित्र पर अगर इसे जगह मिले तो यह न केवल स्थानीय श्रद्धालुओं बल्कि देश-विदेश से आने वाले पर्यटकों को भी आकर्षित कर सकता है। 
         मेरी व्यथा… मेरे पास संस्कृति है, इतिहास है, धार्मिक आस्था है, प्राकृतिक सुंदरता है, लेकिन अफसोस प्रशासन की अनदेखी भी है। यहाँ विकास की योजनाएँ आती हैं, मगर कागज़ पर ही रह जाती हैं। अगर थोड़ी दूरदर्शिता और ईमानदार प्रयास हों, तो मैं बिहार और पूरे देश के लिए एक मिसाल बन सकता हूँ। मेरी अपील मैं चाहता हूँ कि मेरी आवाज़ सुनी जाए। मेरे गंगा घाट को साफ़ किया जाए, मेरे रेलवे स्टेशन को आधुनिक बनाया जाए, मेरी गोगबिल झील को संरक्षित किया जाए, मेरे पीर पहाड़, महर्षि मेहीं दास कुटी और नवाबगंज ठाकुरबाड़ी को सम्मान मिले। मैं चाहता हूँ कि लोग मुझे सिर्फ़ एक कस्बे के रूप में न देखें, बल्कि मेरी खूबसूरती और संभावनाओं को पहचानें। क्योंकि… मैं मनिहारी हूँ — इतिहास, संस्कृति और प्रकृति का संगम।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025

बाढ़ग्रस्त जीवन: एक अनकही पीड़ा

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हर साल बरसात के मौसम में ग्रामीण इलाकों के लोग बाढ़ की समस्या से जूझते हैं। यह समस्या केवल कुछ दिनों की परेशानी नहीं होती, बल्कि पूरे साल भर इसका असर गाँव की ज़िंदगी पर दिखाई देता है। बाढ़ जहां एक तरफ़ खेतों और फसलों को बर्बाद कर देती है, वहीं दूसरी ओर लोगों के घर, रोज़गार और स्वास्थ्य पर भी गंभीर संकट खड़ा कर देती है।

1. फसलें और आजीविका पर असर ग्रामीण इलाकों की अर्थव्यवस्था खेती पर निर्भर रहती है। जब बाढ़ आती है तो खड़ी फसलें पानी में डूब जाती हैं। कभी-कभी खेतों की मिट्टी भी बहकर चली जाती है जिससे ज़मीन की उर्वरता कम हो जाती है। किसान पूरे साल की मेहनत गंवा बैठते हैं और कर्ज़ के बोझ तले दब जाते हैं।

2. घर और बुनियादी ढाँचे का नुकसान गाँवों में ज़्यादातर घर कच्चे होते हैं। बाढ़ के तेज़ बहाव में ये मकान गिर जाते हैं और लोग खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर हो जाते हैं। सड़कें टूट जाती हैं, पुल बह जाते हैं और गाँव शहर से कट जाते हैं। इस कारण राहत सामग्री और दवाइयाँ पहुँचने में भी कठिनाई होती है।

3. मवेशियों को चारा एवं रहने की समस्या हो जाती है, आमजन अपने जान माल को लेकर किसी ऊंचे स्थान पर रहने को विवश हो जाते हैं। पशुओं के चारा के लिए उन्हें कई तरह के समस्याओं से जूझना पड़ता है। कई पशु पालक बाद आने से पहले ही सूखा चारा कि व्यवस्था कर लेते हैं, जिसके चलते उन्हें चारा के लिए इधर उधर भटकना नहीं पड़ता है

4. स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बाढ़ के पानी में गंदगी मिल जाने से जलजनित बीमारियाँ जैसे हैजा, डायरिया, टाइफाइड और मलेरिया फैलने लगती हैं। स्वच्छ पानी और शौचालय की व्यवस्था ठप हो जाती है। सबसे अधिक परेशानी छोटे बच्चों और बुज़ुर्गों को झेलनी पड़ती है।

5. शिक्षा और सामाजिक जीवन पर असर स्कूल बाढ़ के पानी में डूब जाते हैं या राहत शिविरों में बदल दिए जाते हैं। बच्चों की पढ़ाई बाधित होती है और कई महीनों तक शिक्षा व्यवस्था अस्त-व्यस्त रहती है। सामाजिक जीवन भी प्रभावित होता है क्योंकि लोग रोज़गार की तलाश में गाँव छोड़कर पलायन करने को मजबूर हो जाते हैं।

समाधान की दिशा में प्रयास बाढ़ की समस्या से निपटने के लिए सरकार और समाज दोनों को मिलकर कदम उठाने की ज़रूरत है। समय पर नदियों की सफाई और तटबंधों की मरम्मत हो। राहत शिविरों में स्वच्छ पानी, भोजन और दवाइयों की पर्याप्त व्यवस्था की जाए। किसानों को बाढ़ बीमा और फसल क्षतिपूर्ति का लाभ समय पर मिले। गाँवों में ऊँचे स्थानों पर पक्के घर और सामुदायिक शरण स्थल बनाए जाएँ। बाढ़ आने से पहले ही अपने जरूरी सामन, जरूरी कागजात को सुरक्षित रख लेना चाहिए तथा सूखा राशन जैसे चावल, दाल, आटा, आलू, प्याज, सोयाबीन इत्यादि तथा जलावन के लिए पहले से ही गैस या सुखी लकड़ी की व्यवस्था कर लेनी चाहिए

शुक्रवार, 15 अगस्त 2025

श्रावण मास में मनिहारी का धार्मिक महत्व

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भारत की धरती धार्मिक आस्था और पौराणिक परंपराओं से ओतप्रोत है। यहां के प्रत्येक नदी, पर्वत, वन, और ग्राम में कोई न कोई दिव्य कथा समाहित है। बिहार राज्य के कटिहार जिले में स्थित दो प्रमुख स्थल — मनिहारी और मुकुरिया — ऐसी ही आध्यात्मिक ऊर्जा से परिपूर्ण हैं। विशेषकर श्रावण मास में, जब चारों ओर भक्ति की लहरें बहती हैं, तब यह क्षेत्र शिवभक्ति की धारा में डूब जाता है।

यह ब्लॉग आपको ले चलेगा एक ऐसे आध्यात्मिक सफर पर, जहाँ उत्तरवाहिनी गंगा का पुण्य जल, कांवड़ यात्रा की कठोरता, और गोरखनाथ धाम की शिवभक्ति, सब कुछ एक साथ समाहित है।

मनिहारी: उत्तरवाहिनी गंगा का पवित्र तट

मनिहारी, कटिहार जिले का एक पौराणिक और धार्मिक स्थल है, जो गंगा नदी और कोसी नदी के संगम पर स्थित है। आमतौर पर गंगा नदी दक्षिण की ओर बहती है, लेकिन मनिहारी में वह दुर्लभ रूप से उत्तर की ओर प्रवाहित होती है। इसे उत्तरवाहिनी गंगा कहा जाता है और यह स्थिति अत्यंत पवित्र मानी जाती है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार, उत्तरवाहिनी गंगा में स्नान करने से सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और मोक्ष की प्राप्ति होती है।

श्रावण मास में इस स्थान का महत्व और भी बढ़ जाता है। यहां श्रद्धालु आकर गंगाजल भरते हैं और फिर शुरू होती है एक कांवड़ यात्रा, जो भक्ति, तप और समर्पण का प्रतीक है।

श्रावण मास: शिवभक्ति का सर्वोच्च समय

श्रावण मास, हिंदू पंचांग का वह पवित्र महीना है जो भगवान शिव को समर्पित होता है। इस महीने में हर सोमवार को विशेष पूजा की जाती है और कांवड़ यात्रा एक विशेष अनुष्ठान के रूप में मनाई जाती है।

जब समुद्र मंथन हुआ था, तो उसमें से "हलाहल विष" निकला। यह विष संपूर्ण सृष्टि को नष्ट कर सकता था। तब भगवान शिव ने करुणा वश उस विष को पी लिया।

विष को गले में रोककर उन्होंने सृष्टि की रक्षा की और उनका गला नीला हो गया, इसीलिए उन्हें नीलकंठ भी कहा जाता है।विष के प्रभाव को शांत करने के लिए देवताओं ने उन पर गंगाजल अर्पित किया, जिससे शरीर में शीतलता बनी रहे।

मनिहारी से श्रद्धालु गंगा जल भरकर पैदल यात्रा शुरू करते हैं और कटिहार जिले के मुकुरिया स्थित गोरखनाथ धाम तक पहुंचते हैं। यह यात्रा केवल एक धार्मिक रिवाज़ नहीं, बल्कि आस्था और आत्मशुद्धि का मार्ग है।

कांवड़ यात्रा: तपस्या का मार्ग

मनिहारी से मुकुरिया तक की यह कांवड़ यात्रा भक्तों के लिए किसी व्रत से कम नहीं। भक्तजन, जिन्हें कांवड़िया कहा जाता है, कंधों पर कांवड़ रखकर, नंगे पांव गोरखनाथ धाम की ओर प्रस्थान करते हैं।

पूरा मार्ग ‘बोल बम - बोल बम’, ‘हर हर महादेव’ और ‘जय भोलेनाथ’ के जयकारों से गूंजता रहता है। ग्रामीण इलाके, बाजार, स्कूल, और यहाँ तक कि खेतों के रास्ते भी इस भक्ति रस में रंग जाते हैं।

रास्ते में कई स्थानों पर स्थानीय लोग सेवा शिविर लगाते हैं, जैसे मनिहारी में बोलबम सेवा समिति मनिहारी, स्टेट  बैंक ऑफ़ इंडिया मनिहारी शाखा के द्वारा, नवाबगंज में दिशा ऑनलाइन क्लासेस  इत्यादि अनेको स्थान जो मनिहारी से मुकुरिया के बीच में पड़ते हैं शुद्ध पेय जल, शरबत, भोजन और विश्राम की व्यवस्था होती है।

बोलबम सेवा समिति मनिहारी, नवाबगंज स्थित ठाकुरबाड़ी के प्रांगण में कावड़ियों के लिए भक्ति जागरण भी रखा जाता है जिसमे दूर-दूर से कलाकार को बुलाया जाता है, जो अपने मधुर आवाज़ से पूरा माहौल भक्तिमय कर देते हैं। यह सेवा निःस्वार्थ होती है और दर्शाती है कि श्रावण मास केवल पूजा का समय नहीं, बल्कि समाज सेवा और सद्भावना का महीना भी है।

गोरखनाथ धाम, मुकुरिया: शिवभक्ति का अंतिम पड़ाव

कटिहार जिले के मुकुरिया प्रखंड में स्थित गोरखनाथ धाम इस यात्रा का अंतिम और अत्यंत पवित्र स्थल है। यह मंदिर नाथ संप्रदाय से जुड़ा हुआ है, जिसमें बाबा गोरखनाथ को भगवान शिव का अवतार माना जाता है।

कांवड़िए जब इस मंदिर में पहुंचते हैं तो वे गंगा जल से शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। यह क्षण उनके लिए अत्यंत भावुक होता है — यात्रा की थकान, तपस्या, और समर्पण — सबका सुफल मानो इसी जलार्पण में समाहित हो जाता है। गोरखनाथ धाम में श्रावण मास के दौरान विशेष श्रृंगार, आरती, और मेला का आयोजन होता है, जहाँ दूर-दूर से श्रद्धालु पहुंचते हैं।

धार्मिकता से पर्यटन तक: मनिहारी और मुकुरिया का समग्र विकास

श्रावण मास में मनिहारी और मुकुरिया का क्षेत्र एक विशाल धार्मिक उत्सव स्थल में परिवर्तित हो जाता है। हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते हैं जिससे स्थानीय व्यवसाय, आवास व्यवस्था, और सामाजिक तंत्र में भी गति आती है।

यह देखा गया है कि धार्मिक पर्यटन से इन इलाकों में रोज़गार के अवसर भी बढ़ते हैं। मनिहारी घाट पर नाव सेवाएं, दुकानें, फूल और पूजन सामग्री की बिक्री, भोजनालय, आदि स्थानीय लोगों के लिए आय का प्रमुख साधन बन जाते हैं।

संस्कृति और पीढ़ियों का संगम

यह यात्रा केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही सांस्कृतिक विरासत है। बहुत से परिवारों में बच्चे अपने माता-पिता और दादा-दादी के साथ पहली बार कांवड़ यात्रा में भाग लेते हैं। इस यात्रा से वे न केवल शिवभक्ति की शक्ति को समझते हैं, बल्कि अपनी संस्कृति, जड़ों और पहचान से भी जुड़ते हैं।

मनिहारी से मुकुरिया तक भक्ति की अविरल धारा

श्रावण मास में मनिहारी की उत्तरवाहिनी गंगा से लेकर मुकुरिया स्थित गोरखनाथ धाम तक की यह यात्रा केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं है, यह एक आध्यात्मिक अनुभूति, सांस्कृतिक संगम और सामाजिक एकता का प्रतीक है।

यह यात्रा हमें यह सिखाती है कि जब मन में श्रद्धा हो, शरीर थकता नहीं; जब दिल में शिव हों, तो मार्ग स्वयं खुलते हैं; और जब समाज साथ चले, तो भक्ति पर्व बन जाती है।

यदि आपने अब तक इस यात्रा का हिस्सा नहीं बने हैं, तो किसी आने वाले श्रावण में जरूर आइए। मनिहारी की गंगा में स्नान करें, जल भरें, कांवड़ उठाएं और उस अनोखी ऊर्जा को महसूस करें जो इस पवित्र भूमि को विशेष बनाती है।

हर हर महादेव!


मंगलवार, 28 जनवरी 2025

दादा बोदी बिरयानी - बैरकपुर, कोलकाता का स्वादिष्ट अनुभव

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कोलकाता, जिसे हम भारतीय खाने के शाही शहर के रूप में जानते हैं, यहां के विभिन्न व्यंजन और खासियतें हर किसी को आकर्षित करती हैं। अगर आप बिरयानी प्रेमी हैं तो बैरकपुर स्थित दादा बोदी बिरयानी का नाम जरूर सुना होगा। वैसे तो आपको कोलकाता के हर छोटे बड़े रेस्टोरेंट में बिरयानी मिल जाएंगे परंतु दादा बोदी बिरयानी की बात ही अलग है। यह स्थान न केवल स्वाद के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां का माहौल और सेवा भी इसे खास बनाते हैं।

दादा बोदी बिरयानी का इतिहास

दादा बोदी बिरयानी बैरकपुर के एक पुराने और लोकप्रिय इलाके में स्थित है, जहां वर्षों से बिरयानी का स्वाद लोगों के दिलों में बस गया है। यह बिरयानी न केवल स्वादिष्ट होती है, बल्कि यहां के मसालों का अद्भुत मिश्रण और पकाने की खास विधि इसे कोलकाता की बिरयानी से अलग बनाती है। बिरयानी में इस्तेमाल होने वाला मांस, मसाले और चावल, सभी बेहद ताजे और बेहतरीन होते हैं। यही कारण है कि 60 वर्षों से कोलकाता में रहने वाले हो या हम जैसे बिहार, झारखंड या अन्य जगहों से कोलकाता आनेवाले पर्यटकों एवं स्वाद प्रेमियों के दिलों पर दादा बोदी रेस्टोरेंट राज कर रहे हैं।

मेन्यू में क्या खास है?

दादा बोदी बिरयानी का मेन्यू खासतौर पर बिरयानी प्रेमियों के लिए डिज़ाइन किया गया है। यहां आपको विभिन्न प्रकार की बिरयानी मिलती है, जैसे मटन बिरयानी, चिकन बिरयानी, आलू बिरयानी और कुछ खास वेरिएंट्स। यहां के बिरयानी में एक और खाश बात होती है कि आप चाहे चिकन या मटन बिरयानी ले आपको सब में एक आधे आलू का टुकड़ा जरूर दिया जाता है जो बिरयानी के दीवानों के लिए खाश होता है। हर बिरयानी में मसालों का सही संतुलन होता है, और चिकन या मटन का टुकड़ा बेहद मुलायम और स्वादिष्ट होता है।

इसके अलावा, यहां के कोल्ड ड्रिंक्स और रायता भी उतने ही स्वादिष्ट होते हैं, जो बिरयानी के साथ परफेक्ट कॉम्बिनेशन बनाते हैं।


अवधि और स्थान

दादा बोदी बिरयानी बैरकपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म संख्या 01 से बाहर निकलते ही लगभग 50 मीटर की दूरी पर स्थित है, और यहां आसानी से पहुंचा जा सकता है। इसका स्थान बहुत ही सुलभ है, और आसपास के इलाके से यह एक प्रमुख आकर्षण बन चुका है। अगर आप कोलकाता में हैं और बैरकपुर की तरफ जा रहे हैं, तो दादा बोदी बिरयानी का स्वाद लेना न भूलें। रेस्टोरेंट खुलने का समय सुबह के 11 बजे से रात के 11 बजे तक रहता है।

खासियत और लोकप्रियता

दादा बोदी बिरयानी की सबसे बड़ी खासियत इसका स्वाद है, जो बहुत कम स्थानों पर मिलता है। यहां की बिरयानी को बनाने की खास विधि और ताजे मसाले ही इसे अलग बनाते हैं। इसके अलावा, यहां का अच्छा सेवा और साफ-सुथरा माहौल भी एक और वजह है, जो इसे लोगों के बीच इतना लोकप्रिय बनाता है।

निष्कर्ष

अगर आप कोलकाता के पास बैरकपुर क्षेत्र में हैं और बिरयानी खाने का मन है, तो दादा बोदी बिरयानी एक बेहतरीन विकल्प है। स्वादिष्ट, मसालेदार और लजीज बिरयानी का आनंद लेने के लिए यहां जरूर जाएं। यह न केवल एक खाने का अनुभव है, बल्कि कोलकाता की सांस्कृतिक और पाककला की एक झलक भी है।

तो अगली बार जब आप बैरकपुर जाएं, तो दादा बोदी बिरयानी का स्वाद जरूर लें और इस अद्भुत स्वाद का हिस्सा बनें!

सोमवार, 16 दिसंबर 2024

16 दिसम्बर 1971 बांग्लादेश विभाजन में भारत का महत्वपूर्ण योगदान

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1971 का वर्ष दक्षिण एशिया के इतिहास में एक निर्णायक मोड़ साबित हुआ। यह वह समय था जब बांग्लादेश ने पाकिस्तान से अपनी स्वतंत्रता हासिल की और इसके साथ ही भारत ने उस संघर्ष में अपनी निर्णायक भूमिका निभाई, जिसने बांग्लादेश की मुक्ति को संभव बनाया। बांग्लादेश विभाजन, जिसे बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के नाम से भी जाना जाता है, में भारत ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम को न केवल समर्थन दिया, बल्कि सक्रिय रूप से भाग लिया। 

बांग्लादेश का संघर्ष और पाकिस्तान में असंतोष
बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) और पाकिस्तान (तत्कालीन पश्चिमी पाकिस्तान) के बीच वर्षों से असंतोष और राजनीतिक तनाव बना हुआ था। पूर्वी पाकिस्तान के लोग, जो भाषाई, सांस्कृतिक और भौगोलिक दृष्टि से पश्चिमी पाकिस्तान से पूरी तरह अलग थे, ने लंबे समय से पाकिस्तान की पश्चिमी हिस्से के साथ असमान और भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध किया।  

1970 में पाकिस्तान के आम चुनावों में पूर्वी पाकिस्तान की अवामी लीग ने भारी बहुमत प्राप्त किया था, लेकिन पाकिस्तान की पश्चिमी सरकार ने चुनाव परिणामों को नकारते हुए, बांग्लादेशी नेताओं को सत्ता सौंपने से इनकार कर दिया। इसके परिणामस्वरूप, बांग्लादेशी नागरिकों का गुस्सा और असंतोष चरम पर पहुँच गया। अंततः, 25 मार्च 1971 को पाकिस्तान सेना ने पूर्वी पाकिस्तान में बर्बर कार्रवाई की, जिसे "ऑपरेशन सर्चलाइट" कहा गया। इस सैन्य कार्रवाई में लाखों नागरिक मारे गए और भारी संख्या में लोग पलायन करने के लिए मजबूर हुए।

भारत का रुख और समर्थन
भारत में बांग्लादेश के संघर्ष को लेकर गहरी चिंता और सहानुभूति थी, क्योंकि लाखों शरणार्थी भारत में आकर बस गए थे। पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा पूर्वी पाकिस्तान में किए जा रहे दमन के खिलाफ भारत की सरकार ने लगातार अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर आवाज उठाई। भारत के प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बांग्लादेश के लोगों के संघर्ष के प्रति अपनी सक्रिय सहानुभूति व्यक्त की और बांग्लादेशी नेता शेख मुजीबुर रहमान और उनकी अवामी लीग को समर्थन दिया।

1971 के अंत तक, भारत के पास बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम को समर्थन देने के लिए एक मजबूत नीति बन चुकी थी। भारत ने न केवल राजनीतिक और कूटनीतिक स्तर पर बांग्लादेश का समर्थन किया, बल्कि भारतीय सेना ने बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में सैन्य सहायता भी प्रदान की।

भारत-पाकिस्तान युद्ध और बांग्लादेश की स्वतंत्रता
भारत ने बांग्लादेश की मुक्ति के लिए पाकिस्तान के खिलाफ सैन्य अभियान शुरू किया, जो 3 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तान द्वारा भारत पर हमले के बाद औपचारिक रूप से युद्ध में बदल गया। भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ पश्चिमी मोर्चे पर युद्ध लड़ा, जबकि भारतीय सैनिकों ने बांग्लादेश में पाकिस्तान सेना के खिलाफ प्रमुख लड़ाई लड़ी। 

भारतीय सेना ने बांग्लादेश की मुक्ति संग्राम सेनानियों (जो "मुजीब बहिनी" के नाम से जाने जाते थे) के साथ मिलकर बांग्लादेश में पाकिस्तान सेना के खिलाफ निर्णायक हमले किए। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान की वायुसेना और बांग्लादेश के विभिन्न सैन्य ठिकानों पर हमला किया, जबकि भारतीय सेना ने बांग्लादेश के शहरों और कस्बों में पाकिस्तानियों से लड़ाई लड़ी। 16 दिसम्बर 1971 को पाकिस्तानी सेना ने ढाका में आत्मसमर्पण कर दिया, जिसके साथ बांग्लादेश की स्वतंत्रता की प्रक्रिया पूरी हुई। यह दिन अब बांग्लादेश में "विजय दिवस" के रूप में मनाया जाता है।

भारत का सैन्य योगदान
भारत की सेना ने बांग्लादेश की स्वतंत्रता संग्राम में निर्णायक भूमिका निभाई। भारतीय सेना ने तीन प्रमुख मोर्चों पर युद्ध लड़ा:

1. पूर्वी मोर्चा: भारतीय सेना ने बांग्लादेश में पाकिस्तान सेना के खिलाफ प्रमुख लड़ाइयाँ लड़ीं। भारतीय सशस्त्र बलों ने बांग्लादेश के प्रमुख शहरों, जैसे ढाका, चटगांव, खुलना और कुस्तिया पर कब्जा किया और पाकिस्तान की सेना को विभाजित कर दिया।

2. पश्चिमी मोर्चा: पाकिस्तान ने भारत पर हमला करने की कोशिश की, लेकिन भारतीय सेना ने उसे बुरी तरह परास्त कर दिया और पाकिस्तान के पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेनाएँ पाकिस्तान के भीतर गहरी तक घुस गईं।

3. वायुसेना और नौसेना का योगदान: भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के हवाई ठिकानों पर हमला किया, जबकि भारतीय नौसेना ने पाकिस्तानी नौसेना को बाधित किया और बांग्लादेश के तट पर पाकिस्तान के युद्धपोतों को हराया।

भारत की कूटनीतिक भूमिका  
इंडिया ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्थन प्रदान किया। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संयुक्त राष्ट्र और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर बांग्लादेश के खिलाफ पाकिस्तान की कार्रवाई की कड़ी निंदा की और भारत के पक्ष को प्रमुखता से रखा। भारत ने बांग्लादेश के संघर्ष को एक मानवाधिकार मुद्दा माना और इसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रचारित किया।  

16 दिसम्बर 1971 को बांग्लादेश की स्वतंत्रता केवल एक क्षेत्रीय संघर्ष का परिणाम नहीं था, बल्कि यह भारत के युद्ध नीतियों, कूटनीतिक कदमों और सैन्य साहस का परिणाम था। भारत ने बांग्लादेश के स्वतंत्रता संग्राम में अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग किया और उसकी सहायता से बांग्लादेश को पाकिस्तान से मुक्ति मिली। भारतीय सेना के साहसिक अभियानों और भारतीय सरकार की कूटनीतिक पहल के कारण बांग्लादेश को अपनी स्वतंत्रता प्राप्त हुई, और आज यह दिन बांग्लादेश के इतिहास में एक स्वर्णिम अध्याय है। भारत के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता और यह भारतीय सेना और जनता की एकता और शक्ति का प्रतीक बना रहेगा।

गुरुवार, 14 नवंबर 2024

बाल दिवस: बच्चों के अधिकारों और उनके उज्जवल भविष्य की ओर

Manihari

बाल दिवस, जिसे हम "बाल दिवस" के नाम से भी जानते हैं, हर साल 14 नवंबर को मनाया जाता है। यह दिन विशेष रूप से हमारे देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की जयंती के रूप में मनाया जाता है। पंडित नेहरू बच्चों के प्रति अपनी विशेष स्नेहभावना के लिए प्रसिद्ध थे, और उन्होंने हमेशा यह विश्वास किया कि बच्चों को उचित शिक्षा, पालन-पोषण, और अच्छे वातावरण में बढ़ने का अधिकार है। इसलिए इस दिन का उद्देश्य बच्चों के अधिकारों को सम्मानित करना और उनकी भलाई के लिए काम करने की आवश्यकता को समझाना है।

बाल दिवस का महत्व:

बाल दिवस केवल एक समारोह नहीं, बल्कि यह बच्चों के अधिकारों के प्रति हमारे समाज की प्रतिबद्धता का प्रतीक है। आज के दिन हम यह सोचने का अवसर पाते हैं कि बच्चों के भविष्य को बेहतर बनाने के लिए क्या कदम उठाए जा रहे हैं। यह दिन हमें यह याद दिलाता है कि बच्चों का उत्थान हमारे देश के उज्जवल भविष्य के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। पंडित नेहरू का मानना था कि बच्चों में देश का भविष्य बसता है, और उन्हें सही मार्गदर्शन देने से ही हम एक प्रगतिशील राष्ट्र का निर्माण कर सकते हैं।

पंडित नेहरू और बच्चों के प्रति उनका प्यार:

पंडित नेहरू बच्चों के साथ अपना खास संबंध रखते थे। उन्हें बच्चों के सवालों का जवाब देना, उनके साथ समय बिताना और उनकी बातों को सुनना बहुत पसंद था। उन्हें हमेशा बच्चों के विकास, उनके अधिकार और उनके भविष्य की चिंता रहती थी। यही कारण था कि उनका बालकों के प्रति अपार स्नेह और उनके कल्याण के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बाल दिवस के रूप में जीवित रहती है। बच्चों के प्रति उनके इस प्यार के कारण, उनकी जयंती को बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है।

बालकों के अधिकार:

बाल दिवस के अवसर पर, हमें बच्चों के अधिकारों के बारे में जागरूक होना चाहिए। बालकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा और समान अवसर मिलना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र ने बच्चों के अधिकारों को लेकर एक संधि (Convention on the Rights of the Child) बनाई है, जिसके तहत बच्चों को जीवन के हर पहलू में विशेष अधिकार दिए गए हैं। इसका उद्देश्य बच्चों को हर प्रकार के शोषण, अत्याचार और भेदभाव से बचाना है और उनके समग्र विकास की दिशा में काम करना है।

बाल दिवस के अवसर पर किए जाने वाले आयोजन:

बाल दिवस के मौके पर स्कूलों में विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, जिसमें बच्चों के लिए खेल, नृत्य, गायन, वाद-विवाद प्रतियोगिताएं, और कला प्रदर्शनी जैसी गतिविधियां होती हैं। इस दिन बच्चों के साथ उनकी पसंदीदा चीजों का आयोजन किया जाता है ताकि वे अच्छे से अच्छा समय बिता सकें। इसके अलावा, यह दिन शिक्षकों और अभिभावकों के लिए भी यह सोचने का अवसर होता है कि वे बच्चों के लिए और बेहतर क्या कर सकते हैं।

समाज में बच्चों का स्थान:

आज के समाज में बच्चों का स्थान पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। बच्चों के लिए काम करने वाली कई सरकारी और गैर सरकारी संस्थाएँ हैं जो उनके अधिकारों की रक्षा करने और उनके जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत हैं। इसके बावजूद, हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि समाज के कई हिस्सों में आज भी बच्चों से काम लिया जाता है, उन्हें उचित शिक्षा नहीं मिल पाती और उनका शोषण होता है। ऐसे में बाल दिवस हमें यह सोचने का अवसर देता है कि हम अपने समाज में बच्चों के लिए और अधिक सकारात्मक बदलाव कैसे ला सकते हैं।

बाल दिवस हमें यह याद दिलाता है कि बच्चों का विकास न केवल उनके लिए, बल्कि समग्र समाज और राष्ट्र के लिए आवश्यक है। हमें बच्चों को अपने देश का सबसे कीमती धरोहर मानते हुए उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए और उनके समग्र विकास के लिए काम करना चाहिए। पंडित नेहरू का यह उद्धरण हमेशा हमारे दिलों में गूंजता रहेगा: "अगर हम बच्चों को सही दिशा दिखाते हैं, तो वह समाज में बदलाव ला सकते हैं।"

आइए, इस बाल दिवस पर हम सभी संकल्प लें कि बच्चों के अधिकारों की रक्षा करेंगे और उनके उज्जवल भविष्य के लिए हर संभव प्रयास करेंगे।

बुधवार, 13 नवंबर 2024

कोलकाता: एक ऐतिहासिक सांस्कृतिक धरोहर और जीवन्त शहर

Manihari
कोलकाता, पश्चिम बंगाल की राजधानी, भारतीय उपमहाद्वीप का एक ऐसा शहर है जो अपनी ऐतिहासिक विरासत, कला, संस्कृति और सामाजिक जीवन के लिए जाना जाता है। यह शहर न केवल भारतीय उपमहाद्वीप का एक प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र है, बल्कि यह समृद्ध इतिहास और परंपराओं का प्रतीक भी है। यहाँ की गलियों से लेकर हर मोड़ पर आपको एक नई कहानी सुनने को मिलती है, एक नया अनुभव होता है।

कोलकाता की पुरानी विरासत

कोलकाता की पुरानी विरासत ब्रिटिश काल से जुड़ी हुई है, जब इसे 'कलकत्ता' के नाम से जाना जाता था। 18वीं शताबदी में स्थापित हुआ यह शहर भारतीय उपमहाद्वीप के एक प्रमुख व्यापारिक और प्रशासनिक केंद्र के रूप में विकसित हुआ। यहाँ के भव्य ब्रिटिश-कालीन भवन, जैसे कि विक्टोरिया मेमोरियल, एलीफैंटा हॉल, और रॉयल कलकत्ता टॉक्स, आज भी शहर की शान बढ़ाते हैं। इन इमारतों में ब्रिटिश वास्तुकला की बेजोड़ झलक देखने को मिलती है।


खाना - स्वाद का संसार
कोलकाता में खाने की अपनी खासियत है। यहाँ का खाना न केवल स्वादिष्ट होता है, बल्कि यह संस्कृति का हिस्सा भी है। "रसगुल्ला" और "माछेर झोल" (मछली का करी), "मिस्टी दोई " (मीठी दही), और "आलू-पूरी" जैसे बंगाली व्यंजन आपको यहाँ हर जगह मिल जाएंगे। यहाँ की 'पुचका' (पानीपुरी) के भी क्या कहने! कोलकाता की पुचका को खाकर लोग हमेशा के लिए इसके दीवाने हो जाते हैं। जो स्वाद की ताजगी, तीव्रता और खुशबू इस चटपटी डिश में होती है, वह शायद कहीं और नहीं।

फूलों का बाजार - हावड़ा के पास रंगों का संसार
कोलकाता का फूलों का बाजार, खासकर हावड़ा ब्रिज के पास, शहर का एक जीवंत और रंगीन हिस्सा है। यहाँ के फूलों की खुशबू और रंग-बिरंगे फूलों का दृश्य किसी जादू से कम नहीं होता। सुबह-सुबह फूलों के साथ सजे ट्रक, छोटे-छोटे दुकानें और व्यापारियों की आवाजें, यह पूरा माहौल कोलकाता के जीवंतता को महसूस कराता है। यहाँ आपको हर प्रकार के फूल मिलेंगे – गुलाब, गेंदे, चमेली, रजनीगंधा, कमल और न जाने क्या-क्या!

कोलकाता की मेट्रो: आधुनिकता की दिशा में एक कदम

कोलकाता की मेट्रो प्रणाली भारतीय शहरों में पहली मेट्रो रेल प्रणाली थी, जिसे 1984 में शुरू किया गया था। कोलकाता मेट्रो की शुरुआत ने शहर की यातायात व्यवस्था में क्रांतिकारी बदलाव लाया। अब यह शहर के लगभग सभी प्रमुख इलाकों को जोड़ती है, जिससे यातायात सुगम और कम समय में यात्रा संभव हो जाती है। कोलकाता मेट्रो को बहुत ही आधुनिक और सुविधाजनक माना जाता है, और यह रोज़ाना लाखों यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखता है। खासकर कार्यालयों और शैक्षिक संस्थानों के पास स्थित मेट्रो स्टेशन हर रोज़ यात्रियों से भरे रहते हैं। मेट्रो के द्वारा आप कोलकाता के प्रमुख स्थानों से जुड़े रह सकते हैं, चाहे वह हावड़ा ब्रिज हो या दक्षिणेश्वर काली मंदिर। अब तो यहाँ अंडरवाटर मेट्रो प्रोजेक्ट के तहत हुगली नदी को नदी के अंदर से हावड़ा को सियालदह से जोर दिया गया है।

वो पीली टैक्सी और बसें
कोलकाता की सड़कों पर दौड़ती पीली टैक्सी, जो शहर की पहचान बन चुकी हैं, आपको हर कोने में दिखाई देती हैं। ये टैक्सियाँ केवल यात्रा का साधन नहीं हैं, बल्कि कोलकाता की एक संस्कृति का प्रतीक हैं। इनके पीछे की काली और पीली रंग की पट्टी जैसे शहर की पुरानी यादों को ताजगी देती हैं। वहीं, शहर में चलने वाली पुरानी बसें और ट्राम भी कोलकाता के अतीत को जीवित रखती हैं।

लोकल ट्रेन और यात्रा का अनुभव

कोलकाता का लोकल ट्रेन नेटवर्क भारतीय रेलवे के सबसे पुराने और व्यस्त नेटवर्क में से एक है। यहाँ के लोकल ट्रेन यात्रियों की दिनचर्या का अहम हिस्सा हैं। सुबह और शाम के समय जब भी आप इन ट्रेनों में सवार होते हैं, तो आपको हर तरह के लोग, उनकी कहानियाँ, और जीवन के संघर्षों का अनुभव होता है। ट्रेन के सफर में कोलकाता की वास्तविकता और जीवन के रंग-बिरंगे पहलू सामने आते हैं। ऑफिस के समय पर लोकल ट्रैन में सफर करना कोई चुनौती से काम नहीं है, सुबह 08 से 11 बजे तथा शाम के 04 बजे से 07 बजे तक ट्रैन में चढ़ने और उतरने का जद्दोजहत कुछ काम नहीं है। 

चंचल लड़कियां और मासूम बालाएँ

कोलकाता की गलियों में चलते हुए आपको यहाँ की लड़कियों और महिलाओं की बेवाकपन, अल्हड़पन, चंचलता का अहसास होगा। इनकी मासूमियत, शरारत, और सरलता को देखकर आपको कोलकाता के असली जीवन का अनुभव होगा। यहाँ की महिलाएँ अपने पारंपरिक वस्त्रों में सजी-धजी नजर आती हैं, और शहर की सड़कों पर चलते हुए एक अलग ही आभा छोड़ जाती हैं। शाम के समय जब यहाँ की लड़कियां सज-धज के निकलती है तो दिल में के ख़याल तो जरूर आता है, कि इश्क़ हो तो बंगाली लड़की से हो वरना न हो।


नदियाँ और उनमें चलते जहाज
कोलकाता शहर गंगा नदी के किनारे बसा है। यहाँ के बाबूघाट, प्रिंसेप घाट और अन्य घाटों पर नदियों के पानी में तैरते जहाज और नावें कोलकाता के अद्भुत दृश्य का हिस्सा हैं। बाबूघाट पर बैठकर आप नदी की लहरों में खो सकते हैं, और वहीं पास में चलते जहाज, नावों और तटीय जीवन के दृश्य आपको एक अलग ही अहसास दिलाते हैं।

प्रिंसेप घाट और बाबूघाट - ऐतिहासिक धरोहर

प्रिंसेप घाट कोलकाता का एक ऐतिहासिक और खूबसूरत स्थल है। यहाँ से हावड़ा ब्रिज का दृश्य अत्यधिक आकर्षक होता है। शाम को जब सूरज अस्त होता है, और प्रकाश की किरणें गंगा के पानी पर बिखरती हैं, तो यह दृश्य बहुत ही सुरम्य होता है। बाबूघाट भी एक प्रसिद्ध स्थल है जहाँ लोग गंगा में डुबकी लगाते हैं, पूजा करते हैं, और यहाँ की शांतिपूर्ण वातावरण में समय बिताते हैं।





हावड़ा ब्रिज: कोलकाता की शान
हावड़ा ब्रिज, जिसे 'रवींद्र सेतु' भी कहा जाता है, कोलकाता का एक प्रतीक है। यह ब्रिज हावड़ा और कोलकाता शहर को जोड़ता है और हुगली नदी पर बना है। यह ब्रिज ब्रिटिश काल में 1943 में बनकर तैयार हुआ था और आज भी भारत का सबसे व्यस्त पुलों में से एक है। हावड़ा ब्रिज की विशालता, उसकी निर्माण शैली और शहर के बीच में स्थित होने के कारण यह कोलकाता का एक प्रसिद्ध और ऐतिहासिक स्थल बन चुका है। यहाँ पर आप दिन या रात के किसी भी समय इसे देख सकते हैं और उसकी भव्यता का अनुभव कर सकते हैं। खासकर रात में, जब ब्रिज के ऊपर लाइट्स जलती हैं, तो यह दृश्य मंत्रमुग्ध कर देता है।

कालीघाट: आस्था और श्रद्धा का केंद्र
कोलकाता का कालीघाट मंदिर, धार्मिक दृष्टि से एक बेहद महत्वपूर्ण स्थान है। यह मंदिर दक्षिण कोलकाता के कालीघाट इलाके में स्थित है और यहां माँ काली की पूजा की जाती है। कालीघाट का इतिहास 1809 से जुड़ा हुआ है, जब इस मंदिर में माँ काली की प्रतिमा की स्थापना हुई थी। इसे विशेष रूप से तंत्र-मंत्र की साधना करने वाले लोग, भक्त और पर्यटक श्रद्धा से देखते हैं। यह स्थान हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए एक तीर्थ स्थल की तरह है, जहां हर दिन हजारों की संख्या में लोग माँ काली के दर्शन के लिए आते हैं। यहाँ के माहौल में श्रद्धा, शांति और आध्यात्मिकता का अनूठा समागम होता है।

दक्षिणेश्वर काली मंदिर: एक महान धार्मिक स्थल

दक्षिणेश्वर काली मंदिर, कोलकाता के उत्तर में हुगली नदी के किनारे स्थित है और यह शहर के सबसे प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। यह मंदिर 1855 में रानी रासमणि द्वारा स्थापित किया गया था और यहाँ भी माँ काली की प्रतिमा स्थापित की गई है। दक्षिणेश्वर मंदिर को विशेष पहचान स्वामी विवेकानंद और रामकृष्ण परमहंस के साथ जुड़ी हुई है। स्वामी विवेकानंद ने इस मंदिर के प्रांगण में ध्यान साधना की थी, और रामकृष्ण परमहंस ने यहीं पर अपनी आत्म-प्रकाश की प्राप्ति की थी। इस मंदिर का धार्मिक महत्व बहुत गहरा है, और यहाँ हर साल लाखों श्रद्धालु आते हैं।


बेलूर मठ: आध्यात्मिक शांति का केंद्र
बेलूर मठ, रामकृष्ण मिशन का मुख्यालय, कोलकाता के पास बेलूर में स्थित है। यह मठ स्वामी विवेकानंद और उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस द्वारा स्थापित किया गया था। बेलूर मठ न केवल एक आध्यात्मिक केंद्र है, बल्कि यहाँ की वास्तुकला और दृश्य भी आकर्षण का केंद्र हैं। मठ के अंदर स्थित रामकृष्ण परमहंस की मूर्ति, सुंदर मंदिर और हरियाली से घिरा वातावरण यहां आने वाले भक्तों और पर्यटकों को शांति और संतुष्टि प्रदान करता है। यहाँ की शांतिपूर्ण और आध्यात्मिक आभा आपको जीवन की वास्तविकता का अहसास कराती है।


कोलकाता, एक ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और जीवन्त शहर है, जहाँ परंपराएँ और आधुनिकता का अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। यहाँ की गलियाँ, यहाँ का खाना, और यहाँ की सड़कों पर चलते लोग इस शहर की पहचान हैं। हर कोने में आपको एक नई कहानी मिलेगी, और कोलकाता की सड़कों पर हर कदम आपको इसके जीवंत इतिहास का अहसास कराएगा। यहाँ का हर दृश्य, हर माहौल, और हर अनुभव इस शहर को एक खास स्थान देता है।

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